भारत की आजादी के महानायक एवं आजाद हिंद फौज के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस और पर्यटन नगरी डलहौजी का नाता गहरा
चम्बा 23 जनवरी मुकेश कुमार( गोल्डी)
आज 23 जनवरी को उस शख्स की जयंती है जिसके आह्वान पर हजारों लोग आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। जिसके जादुई और अद्भुत नेतृत्व कौशल ने भारतीय स्वतंत्र संग्राम में नई जान फूंकी। आज महान 23 जनवरी को स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती है। जिसे पूरा भारतवर्ष पराक्रम दिवस के रूप में मानता आ रहा है। बताते चलें कि भारत की आजादी के महानायक एवं आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस और डलहौजी के बीच का नाता अत्यंत गहरा है भारत की गुलामी के दौरान वर्ष 1937 में नेता जी ने डलहौजी मे अपनी जिंदगी के कुछ समय व्यतीत किया था। बात उन दिनों की है जब नेताजी को ब्रिटिश सरकार ने आजादी की लड़ाई हेतु जेलबंद कर दिया था इसी बीच नेताजी की सेहत इतनी बिगड़ गई की डॉक्टरों ने उन्हें अस्वस्थ घोषित कर दिया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पैरोल पर रिहा कर दिया था उस समय वह स्वास्थ्य लाभ के लिए डलहौजी पहुंचे जहां उनके दोस्त डॉ धर्मवीर ने अपने बंगले कायनांस कोठी में ठहरने का आग्रह किया। अपनी बीमारी के दौरान नेता जी ने डलहौजी के गांधी चौक से लगभग एक किलोमीटर दूर सैर करने जाया करते थे जहां एक प्राकृतिक चश्मा था जो आज भी वहां मौजूद है अक्सर नेताजी उस चश्मे के पास बैठकर अपना काफी समय बिताया करते थे ।
स्थानीय लोगों का मानना है कि नेताजी उस चश्मे के पानी से ही स्वस्थ हुए थे क्योंकि देव भूमि हिमाचल की आबोहवा एवं प्राकृतिक चश्मे कई तरह के औषधीय गुणों से भरपूर है जिससे नेताजी बहुत जल्द स्वस्थ हो गए थे। आज वही प्राकृतिक चश्मा सुभाष बावली के नाम से विश्व विख्यात है और डलहौजी में एक आकर्षण का केंद्र भी है सुभाष बावली नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर ही है डलहौजी का एक अन्य लोकप्रिय गंतव्य, सुभाष बावली एक सुरम्य स्थल है, जिसका नाम प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर रखा गया है, यह सुंदर, शांत और शांत है और आगंतुक, विशेष रूप से प्रकृति प्रेमी यहां अपनी छुट्टियां बिताना पसंद करते हैं। सुभाष बावली कई और विशाल ऊंचे पेड़ों से घिरा हुआ है और बर्फ से ढकी चोटियों और ऊंचे पहाड़ों के सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है मौजूदा समय में यहां पर्यटकों के आने-जाने और पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के लिए बैठने की व्यवस्था की गई है। सुभाष बावली से दूर पीर पंजाल, शिवालिक एवं धौलाधार की पहाड़ियां बर्फ से लवरेज दिखाई देती हैं जिनको देखकर ही हर इंसान अपने आप को प्रकृति की गोद में महसूस करता है। किसी का स्वास्थ्य खराब है या वह जो बीमारी के कारण कमजोर महसूस करता है, वह इस शांतिपूर्ण स्थान पर रह सकता है, ध्यान कर सकता है, धारा के औषधीय जल में स्नान कर सकता है और अपने स्वास्थ्य को पुनर्जीवित कर सकता है। सुभाष माली के साथ लगते विस्तारित वन क्षेत्र में आप घूम फिर सकते हैं लेकिन वन्य प्राणियों का भी खौफ रहता है क्योंकि इन जंगलों में रिछ एवं चीते अक्सर देखने को मिल ही जाते हैं।आराम से छुट्टियां बिताने के लिए सुभाष बावली से बेहतर कोई जगह नहीं है। ठंडी हवा और झरनों का बहता पानी यात्रियों के मन और शरीर में ताजगी लाता है। सही मायनों में नेताजी और डलहौजी का नाता आपस में काफी जुड़ा हुआ है नेता जी ने गुलामी के दिनों में डलहौजी की जनता के साथ काफी मेलमिलाप रखा और उनके दिलों में आजादी की अलख भी जगाई लगभग पौने 1 साल पूरा डलहौजी में रहने के बाद नेताजी पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर दोबारा आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। लेकिन डलहौजी आज भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने इतिहास के पन्नों में संजोए हुए हैं। उनके द्वारा प्रयोग लाई गई हर एक चीज को डलहौजी ने आज भी संजो कर रखा है चाहे कयांनास कोठी हो चाहे उसके अंदर रखा हर एक सामान जो नेता जी द्वारा प्रयोग में लाया गया था हर एक उस चीज को जो नेता जी के साथ जुड़ी हुई है। इसलिए डलहौजी में एक चौक को सुभाष चौक का नाम दिया गया है तो वही वहां की सरकारी स्कूल को नेताजी सुभाष चंद्र बोस सीनियर सेकेंडरी स्कूल का नाम दिया गया है।